अक्सर
देख कपड़ों से भरी अल्मारी
अपार ग्लानि का अनुभव होता है
चौगिर्द बिखरी तस्वीरें नंगी
तांडव करती दिखती हैं।
तकती हूँ जब नंगे बदनों का अम्बार
बेरंग हो जाता है लिपस्टिकों का भंडार
लाल, नारंगी, गुलाबी, रोता ज़ार ज़ार
क्यों न भर पाया उस शून्य में उन्माद?
बहुत बेमानी ऊपर ऊपर के यह रंग
कहाँ दे पाए उदासी को उमंग ?
बड़े घरों में दिल क्यों तंग?
कब ध्वंस होगी
अंतरों की यह जंग?
आज भी
इक छोटा सा कोना दिल का
एकांत मेंं सर छुपाए बैठा
खोज रहा
है राज़ क्या
कम और ज़्यादा का ।
परमिंदर सोनी
चंडीगढ़
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