अधूरी-सी इक आस है,
कभी दूर तो कभी पास है।
बुझा न सके जिसे अमृत भी,
जाने कैसी प्यास है?
बहती लाखों नदियाँ यहाँ पर,
नफरत की धरा को मोहब्बत से सींचे,
ऐसी ही सरिता की तलाश है।
अँधेरी गलियों को चाहत से रोशन करें,
कहाँ चाँदनी वो रात है?
जात-धर्म के तूफानों में छिपी,
कहीं तो नेह की बरसात है।
मजहबी मोतियों को रिश्तों में पिरोये,
कहाँ खोया विश्वास है?
इन्सानियत की आड़ में बेचे अपना ईमान भी,
शमर्सार यह बात है।
मानव है तू,
मानवता का राग छेड़,
बन्दे यही तेरी जात है।
कदम अगर सब साथ हो जाएं,
दिल से दिल का रिश्ता बनाएं,
कैसा पावन अहसास है।
ममता कालड़ा
चंडीगढ़
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