“सुनो, वादा करो”
उसने प्यार से, विश्वास से, हाथ दबाया।
कैसी पिघली नज़रों से मुझे देख रही थी।
रोऊँ, न, न, कैसी उलझन! झंझावत!
कई तूफान थे अंदर…..
कैसे कहूँ “जाओ, आराम से जाओ, वह अकेला नहीं होगा” ? जबकि मालूम है कि वह सूखे रेगिस्तान में पानी की बूँदों को तलाश रहा है, सन्नाटों की गूँज उसे अभी से सुनाई दे रही है।
अन्दर ज्वालामुखी फटता रहा, पर बाहर… निश्चल, शान्त, मुस्काती रही।
हँस के जवाब दिया “हाँ, बिल्कुल, तुम पसन्द करो, देखना, उसी से करवा दूँगी।”
वो उदास हो गई, “नहीं, मज़ाक नहीं। कितना कलपता है मेरे लिय। मैं उसे और उदास नहीं देख सकती”
फिर हाथ दबा बोली “please, वादा करो”
“अरे, क्यों इतनी परेशान हो? जी जान से लगे हैं न? तुम ही उसका जीवन हो, रौनक हो, तुम्हें कहीं नहीं जाने देगा”
वह मायूस, उदास, हताश सी मुस्कान लिए चुप हो गई।
मैं दो दिन में वापिस आ गई। हर पल इक डर के साथ।
हवा का हर झोंका लगे जैसे किसी अनहोनी का पैगा़म है।
जल्दी वो भी आ गया…. “जा रही है, आ जाओ”
मेरे भाई का फोन था।
मैं भागी, उड़ के पहुँची। मुझे देख बोली, “ चाय, नाश्ता?”
मैंने प्यार से माथा चूमा, कहा “ देख सब आये हैं, क्या बनाऊँ?”
उखड़ती साँसों को पकड़ मुस्कुरा दी, तकती रही, हाथ थामे, बस, तकती रही……निश्चल……
परमिंदर सोनी
चंडीगढ़