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सुजान धीरे धीरे अपना छोटा सा हवाई झूला धकेलते हुए उदास मन घर की ओर लौट
रहा था। आज फिर उसकी कोई ख़ास कमाई नहीं हुई थी। . घर से इतनी दूर इस
मेले में बड़ी आस लेकर आया था कि शायद कुछ अच्छे पैसे हाथ लग जाएँ। लेकिन
यहाँ भी वही हुआ। उसकी बगल में लगे बिजली के विशाल हवाई झूले पर चढ़ने
वालों की लंबी कतारें उसका मुँह चिढ़ाती रहीं। उसके हाथ वाले झूले पर
ज़्यादातर वीरानी छायी रही। कभी कभी दो चार बच्चे आ जाते थे तो उन्हीं से
मिलने वाले पाँच पाँच रुपये के लिए उसे पूरा ज़ोर लगाना पड़ता था। कई बार
तो वह उन बच्चों को झुलाना शुरू करने से पहले काफी देर तक झूला खड़ा रखता
था कि शायद उन्हें देख कर कुछ दूसरे लोग भी आएँ पर उसकी यह आशा ऊँचे
अँधेरे गुम्बद में फड़फड़ाते पक्षी की तरह से भटकती रह जाती थी। सुबह नौ
बजे से रात के नौ बजे तक कुल कमाई बस 200 रुपये। घर लौटने का कोई हौसला
ही नहीं था।
रह रह कर उसके दिमाग में बगल वाले बिजली के ऊंचे हवाई झूले की लंबी
लाइनों की स्मृति डंक मार रही थी। सोच रहा था कि घर पर बच्चा किस ख़ुशी
से प्रतीक्षा कर रहा होगा कि ‘ बाबा आएगा तो मेले से कोई चीज़ लेकर आएगा ‘
और बाबा है कि 200 रुपये की छोटी सी कमाई को जतन से सहेजे चला आ रहा था ।
उसने सोचा इससे तो अपनी रोज़ तालाब वाली जगह ही क्या बुरी थी ? वहाँ भी
रोज़ 150 के करीब रुपये तो मिल ही जाते थे। बेकार आज इतनी मेहनत की ! ”
अँधा है क्या ? देख कर नहीं चला जाता ? ” किसी की तेज़ डाँटती हुई आवाज़ ने
उसके विचारों को तोड़ा। एक कार सर्र से उसके पास से गुज़र गयी। उसने ध्यान
से देखा तो वह घर के पास पड़ने वाले बाज़ार तक पहुँच चुका था।
” शुक्र है गाड़ीवाले का , सही समय पर चेता दिया वरना इस बाज़ार में किसी
से भिड़ जाता तो कस कर मरम्मत हो जाती। ” वह अपने आप से बड़बड़ाया। उसने
इधर उधर देखते हुए अपना झूला सरकाना शुरू किया। रात के दस बजे का समय था
पर तब भी दुकानों पर भीड़ थी। उसे देख कर वह बुदबुदाया , ” ससुर इन लोगों
को अभी भी चैन नहीं है। ” शायद उसका मन कहना चाहता था कि ‘ ससुर कितना
पैसा है लोगों के पास।’ पर वह कोई लेखक तो था नहीं जो नाप तौल कर अपने
विचार व्यक्त करता। वह तो बस एक मेहनतकश झूले वाला था।
अचानक उसकी निगाह एक कैलेन्डर वाले की दुकान पर पड़ी। उसका जी धक् से रह
गया। उसे याद आया की घर से चलते वक़्त उसके बेटे ने कहा था ” बाबा ,आज
मास्साब के लिए अच्छा सा कैलेन्डर ज़रूर ले आना। ” कई दिन पहले उसके बेटे
ने बताया था कि क्लास के कुछ बच्चों ने मास्साब को नए साल के कैलेन्डर
भेंट किये थे तो मास्साब ने उन बच्चों की खूब तारीफ़ की थी। तभी से उसके
बेटे पर भी मास्साब की शाबाशी लेने का फितूर सवार था। अब वह अपने बेटे
को क्या समझाता कि उन बच्चों के पिता ऐसे दफ्तरों में नौकरी करते हैं
जहाँ दफ्तर की तरफ से कैलेन्डर मिलते हैं। इसके अलावा कुछ लोग भले ही
छोटे ओहदों पर थे लेकिन उनके दफ्तर ऐसे काम के थे कि दूसरे लोग आकर
उन्हें कैलेन्डर भेंट कर जाते थे। इसलिए वे लोग अपने बच्चों के हाथ
मास्टर साहब के लिए कैलेन्डर भिजवा सकते थे।
अब वह अपने बेटे से कैसे कहे कि एक मामूली सा झूले वाला ऐसा निरीह प्राणी
है जिससे किसी का मतलब सिद्ध नहीं होता है। ऐसे में उसे कोई नया
कैलेन्डर भला क्यों देगा ? बच्चे के लिए कैलेन्डर का मिलना एक छोटी सी
बात है किन्तु उसका पिता जानता है कि अगर कुछ हैसियत न हो तो कैलेन्डर
जैसी मामूली चीज़ भी ज़िन्दगी की अधूरी इच्छाओं में से एक बन कर रह जाती
है। उसके अपने घर पर कैलेन्डर के नाम पर बहुत पुराना किसी किराना स्टोर
का फटा हुआ सा चिकना कागज़ लटक रहा है जिस पर धनुष लिए श्री राम जी की
फीकी सी तस्वीर बनी हुई है।
अपने बेटे का मन रखने के लिए उसने एक बार जी कड़ा करके एक कैलेंडर की
दुकान पर दाम पूछा था। ” चालीस रुपये ” सुन कर उसकी हिम्मत ही छूट गयी
थी। उस समय उसकी जेब में मात्र साठ रूपये थे। उसमें से चालीस रुपये बस
बेटे के ‘मास्साब ‘ के चढ़ावे के लिए कैसे खर्च कर दे ? वह चुपचाप वहाँ से
चला आया था।
बेटा रोज़ उत्सुकता से पूछता , ” बाबा आज कैलेन्डर लाये ?” और वह रोज़ कोई
न कोई बहाना बना कर उसे टालने की कोशिश करता। उसकी पत्नी सारी बात
समझती थी पर फिर भी कभी कभी खीझ उठती थी। कहती थी , ” कैसे बाप हो तुम
जो बच्चे की एक छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते। ” पत्नी का यह
वाक्य उसके अहम को गहरे छील जाता था। ठीक ही तो है , वह देखता है कि
मेले ठेले आये पिता कैसे अपने बच्चों की बड़ी से बड़ी फरमाइश छोटे से
छोटे क्षण में पूरी कर देते हैं और वह एक छोटी सी फरमाइश के लिए अपने
बच्चे को बड़े बड़े बहाने सुनाता है। ‘ कल ले आऊँगा की बात से बच्चा तो
बहल जाता है पर उसकी अपनी मजबूरी उसे चुपचाप रुला देती थी।
झूले को धक्का मारते मारते वह हाँफने लगा। वह झूला सड़क के किनार खड़ा
करके एक ओर बैठ गया। जेब में पड़ी इकलौती बीड़ी निकाली और जला कर होंठों
से लगाईं। उसे याद आया कि तालाब किनारे के उसके रोज़ के ठिकाने पर पहले
कितनी कमाई हो जाती थी , रोज़ाना यही कोई 200 रुपये तक । जबकि तब वह एक
बार बिठाने के सिर्फ दो रुपये ही लेता था। उस समय इतनी मँहगाई नहीं थी
इसलिए उन रुपयों में खूब मज़े से गुज़र हो जाती थी। तब वह सप्ताह में एक
दिन छुट्टी भी कर लेता था और कभी कभी बीवी को साथ लेकर अपनी हैसियत के
हिसाब से मौज मस्ती भी कर लेता था।लेकिन जबसे उसके बगल में रहमान खान का
बिजली का बड़ा सा झूला आया तबसे उसका धंधा ही चौपट हो गया था। उसकी तरफ
ग्राहक मुश्किल से ही आते थे। ज़्यादातर तो रहमान खान के झूले की ओर ही
लपकते थे। वह खाली खड़ा खड़ा रहमान खान के झूले को नीचे से ऊपर और ऊपर से
नीचे चक्कर लगाते देखता रहता था। हरी सफ़ेद ट्यूब लाइटों से जगमगाता ,
लोगों की खिलखिलाहटों से चहचहाता बड़ा सा झूला।
रहमान के झूले पर बैठने के बीस रुपये लगते थे। वह सिर्फ पाँच रुपये
लेता था। तालाब के पार्क में आये कुछ कम आय वाले घरों के लोग अपने
बच्चों को लेकर आ जाते थे वरना उसे दिन भर खाली ही खड़ा रहना पड़ता। वह
अंदाज़ लगाता था कि रहमान मियाँ कि को एक दिन में 2000 रुपये की आमदनी तो
हो जाती होगी जबकि उसकी कमाई 200 रुपये से घट कर 150 रुपये के आस पास
आ गयी थी । यह ख्याल उसके दिल पर गुलेल से छूटे पत्थर की तरह से लगता
था।
उसे याद आया कि एक दिन रात को वापसी के समय रहमान खान ने उसे पास बुलाकर
कहा था , ” मियाँ क्यों खाली पीली इस तरह से मातमी सूरत लिए खड़े रहा करते
हो। इस लकड़ी के झूले को छोड़ो और चाहो तो मेरे यहाँ काम शुरू कर दो।
जितना तुम्हें इसमें मिलता है खुदा कसम उससे ड्योढ़ा तो दे ही दूँगा। ”
पर उसकी ये तजवीज़ सुजान को अच्छी नहीं लगी और वह वहाँ से चुपचाप चला आया
था।
घर आकर पत्नी के सामने उसकी मर्दानगी पूंछ पटकने लगी थी , ” क्या समझता
है वो अपने आपको ? मुझे नौकर बनाना चाहता है। अरे चाहे कुछ भी हो , अपना
खुद का मालिक तो हूँ। किसी का दबैल तो नहीं। रूखी सूखी ही सही , दो
वक़्त की रोटी मिल तो रही है। ”
काफी देर उसकी बक झक सुनने के बाद उसकी पत्नी ने दबे स्वर में कहा था, ”
एक बार पूछ तो लेते , शायद अच्छे पैसे दे देता। ” इस बात ऊपर से नीचे
तक जला दिया। उसे उस वक़्त कहाँ ख़याल था कि उसकी पत्नी तो कबसे अभावों
के तंदूर में खामोश जली जा रही थी। उसे तो ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके
मुँह पर थूक दिया हो। वह अपने कपडे फाड़ते हुए बुरी तरह से चीखने
चिल्लाने लगा था। पत्नी डर कर जल्दी से बच्चे को लेकर बाहर चली गयी थी
और शायद उसके सो जाने के बाद ही भीतर आयी थी।
उस दिन के बाद से उसने अपना झूला रहमान के झूले से दूर लगाना शुरू कर
दिया था। कभी रहमान से सामना भी होता तो वह ऐसा व्यवहार करता ‘जैसा एक
राजा दूसरे राजा ‘ के साथ करता है। एक दिन किसी ने उसे बताया था कि
रहमान कह रहा था , ” सुजान बड़ा मेहनती आदमी है और खुद्दार भी। अगर मेरे
पास आ जाए तो पांच हज़ार रुपये महीना दे दूँ। ” यह सुन कर उसका अहम् थोड़ा
और अकड़ गया। आखिर मियाँ को पता चल गया कि यह आदमी कोई पका अमरुद नहीं है
बल्कि सख्त जान नारियल है।
बीड़ी ख़त्म हुई तो उसे लगा कि अब घर चलना चाहिए और वह उठ खड़ा हुआ। किन्तु
तभी उसे याद आया कि बच्चा आज सुबह स्कूल जाते वक़्त कितना रोया था। यह
याद आते ही वह फिर धप्प से बैठ गया। घर जाने की हिम्मत ही न रही। क्या
करे वह? बच्चे की एक ज़रा सी माँग उसके लिए कश्मीर पंजाब बन गयी। कैसे
निकले इस समस्या से ? कौन निकाल सकता है इस समस्या से ? उसके मन में
कौंधा ‘ रहमान ‘ . वह चकरा गया कि अभी तो ठीक इसके विपरीत बातें उस पर
हावी थीं , फिर अचानक कैसे यह नाम उसके दिमाग में आया ? उसने सर को
गुस्से से झटका दिया और तेज़ी से उठ खड़ा हुआ। सोचा , ” चलें घर , जो होगा
देखा जाएगा। अबकी ज़िद की तो बच्चू की कस कर धुनाई कर दूँगा। सब
कैलेन्डर फैलेंडर भूल जायेगा। ”
उसने उठ कर फिर से झूला धकेलना शुरू कर दिया , पर वह स्वयं महसूस कर रहा
था कि जैसे जैसे घर नज़दीक आ रहा था उसके पैर कमज़ोर पड़ते जा रहे थे। वह
सोचने लगा कि कब तक बच्चे को मार कर चुप करा सकेगा ? बच्चा अगर डर से चुप
हो भी गया तो क्या उसका खुद का मन खुश रह पायेगा ? बच्चे की इच्छा पूरी न
कर पाने का दुःख क्या उसके मन की फाँस न बन जाएगा ? उसे अपना हवाई झूला
पहले से अब बहुत भारी लगने लगा था। ऐसा महसूस हुआ कि उसे धकेलने में
बहुत ताकत लगानी पड़ रही है। बिजली वाले हवाई झूले के आदमियों को ये सब
नहीं करना पड़ता है। वह झूला है तो वहीँ खड़ा रहता है। खुद रहमान मियाँ
उसके पीछे टेंट डाल कर पड़ा रहता है क्योंकि इतने विशाल झूले को रोज़
हटाना असंभव है। इसलिए उसके आदमी हर रात मज़े से घर जाते हैं।
अचानक वह झुंझला उठा कि वह क्यों रहमान झूले के बारे में सोच रहा है ?
वह खुद भी तो एक झूले वाला है। इतने संघर्षों में उसने अपने अस्तित्व को
बचा रखा था तो फिर आज क्यों डगमगा रहा है ? पर यह भी तो सच था कि बढ़ती
हुई ज़रूरतों की काली छाया के सामने उसकी आमदनी शाम के सूरज की तरह से
पस्त हुए जा रही थी। उसके अंदर की कसमसाहट बढ़ती जा रही थी। दिमाग दो
हिस्सों में बँट गया था। एक हिस्सा खुद का अस्तित्व बनाये रखना चाहता
था तो दूसरा अनचाहे उसे दूसरी ओर खींच रहा था।
धीरे धीरे चलता हुआ वह ऐसी जगह आ गया था जहाँ से उसका घर धुँधला सा दिखाई
पड़ने लगा था जिसमें हलकी सी रोशनी जल रही थी। उसने उस ओर देखा तो खिड़की
पर कोई काली छायामय मानव आकृति खड़ी लगी। उसे महसूस हुआ कि उसका बेटा खड़ा
उसके आने की राह तक रहा है। उसके दिमाग में गूँजा , ” कैलेन्डर ले आये
बाबा ? ” न जाने उसके दिमाग में कौन सी प्रतिक्रिया हुई कि वह पलट कर
अनायास बोल उठा , :” कल सचमुच ले आऊँगा बेटा , रहमान चाचा से थोड़ा
एडवांस लेकर। ”
इस एक वाक्य को बोल कर वह खुद कुछ देर के लिए विस्मित खड़ा रह गया। अपने
अस्तित्व को बचाये रखने की जो लड़ाई वह लाडे जा रहा था , उसमें एकाएक ये
आत्म समर्पण लैस ? उत्तर जानने के लिए उसने चारों तरफ देखा तो सब तरफ
ज़िन्दगी सो चुकी थी। हल्की हल्की बत्तियों का प्रकाश भर था। उसे फिर
खिड़की पर अपना बेटा दिखाई देने लगा था और उसकी टूटन की पीड़ा पर जैसे कोई
तसल्ली भरा हाथ फिरने लगा था।
कदम बढ़ा कर घर पहुँचा। झूला एक ओर खड़ा किया। अंदर पहुँच कर खिड़की पर
नज़र डाली और पत्नी से पूछा ” ये मुन्ना कहाँ चला गया ? ” पत्नी ने जवाब
दिया , ” वह तो कब का सो गया। ”
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संजीव निगम : परिचय
एम ए [ हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता ] दिल्ली विश्वविद्यालय – प्रथम श्रेणी
एम फिल [ हिंदी साहित्य ] दिल्ली विश्वविद्यालय – प्रथम श्रेणी
हर परिस्थिति या घटना को एक अलग नज़र से देखने वाले हिंदी के चर्चित
रचनाकार. कविता, कहानी,व्यंग्य लेख , नाटक आदि विधाओं में सक्रिय रूप
से लेखन कर रहे हैं.
अनेक पत्रिकाओं-पत्रों में रचनाओं का लगातार प्रकाशन हो रहा है. मंचों ,
आकाशवाणी और दूरदर्शन से रचनाओं का नियमित प्रसारण. रचनाएं कई संकलनों
में प्रकाशित हैं. कई सम्मान प्राप्त जिनमे कथाबिम्ब अखिल भारतीय कहानी
पुरस्कार, व्यंग्य लेखन पर रायटर्स एंड जर्नलिस्ट्स असोसिअशन द्वारा
साहित्य गौरव सम्मान, हिंदी सेवी संस्था इलाहबाद द्वारा साहित्य शिरोमणि
, प्रभात पुंज पत्रिका सम्मान,अभियान संस्था सम्मान आदि शामिल हैं.
कुछ टीवी धारावाहिकों का लेखन भी किया है. इसके अतिरिक्त 18 कॉर्पोरेट
फिल्मों का लेखन भी.गीतों का एक एल्बम प्रेम रस नाम से जारी हुआ है.
आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से 16 नाटकों का प्रसारण.व्यंग्य संग्रह
“साढ़े तीन मिनट का भाषण ” प्रकाशित हुआ है.
शरलॉक होम्स की कहानियों का इंग्लिश से हिंदी में अनुवाद किया जोकि ”
नाचती हुई आकृतियों का रहस्य ” शीर्षक से किताब के रूप में प्रकाशित हुई
हैं।
संजीव निगम
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