ढलती उम्र की शाम: सूखते पत्ते

देखा मैंने उसे ,
ऐसे ही किसी पथ पर,
न कोई राह,
न कोई डगर,
कभी इधर, कभी उधर,
फिर रुका था चलते-चलते,
शायद थक गया था।
जाने किसका था इंतजार ,
छूट गए थे अपने या
निर्लिप्त खड़ा था संसार ।

न कोई मंजिल,
न कोई ठौर,
उम्र का ये कैसा दौर।
जिसके संग हर मुश्किल में
रहा खड़ा,
आंधी-तूफानों से भी लड़ा,
जिस ठूँठ को सवांरने में,
लुटाई थी जान,
आज उसी ने कर दिया बेज़ान।

कुछ लटकते रहते हैं,
खोकर अपना सम्मान,
डबडबाई आँखों ने खुद से,
पूछा तो होगा,
आखिर क्यों गंवाई अपनी पहचान।

जिन्दगी की ठोकरों में,
कुछ मुरझाकर,
बिखर जाते हैं।
पत्थर की दीवारों में तब,
शब्द भी मौन हो जाते हैं।

पर दुनिया का अनोखा दस्तूर,
समय गति दोहराता है ।
पुराने पर नया,
और जीवन के थपेड़ों से,
नया बेरंग हो जाता है।

भूल जाते हैं,
उसके समर्पण को,
जिसकी खाद से ही,
नया जीवन अस्तित्व पाता है।

ममता कालड़ा
चंडीगढ़
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