परछाई

चलिए मिलते है उससे,
जो है हम सब का साथी,
जिस दिशा से आती रॊशनी,
वहाँ से गायब ही हो जाती ।
रोशनी के डर से,
पीछे की ओर छुप जाती,
रोशनी के हिसाब से ,
अपने आकार में बदलाव है लाती।
कभी खुद हैं डरती ,
कभी हमें है डराती ,
कितना भी हम चाहे,
हमसे दूर नहीं वो जाती।
रंग रुप से काली  है होती,
मुझे दिखाती कभी लम्बी कभी छोटी ,
खुद का तो कुछ होता नही,
हमारे ही आकार को चुरा है लेती।
बस एक बाहरी किनारा सा है होता,
अंदर आखँ नाक का कुछ पता नही ,
अरे ! चाहूँँ मैं या ना चाहूँ,
जाती जहाँ मैं उत्पन्न हो जाती वहीं।
खैर सुख दुख की सच्ची साथी,
कई बार तो हमारी मदद कर जाती,
वृक्षों,मकानों आदि की होकर,
धूप से राहत है दिलाती।
अधेरे में बस गायब हो जाती,
रोशनी में वापस आ जाती,
ये कोई और नहीं ,
है हमारी ही परछाई।।

 

*आकांक्षा राव*
कक्षा 12वीं

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