हमारे शहर में सरकारी छत्र छाया में अक्सर ऐसी विशिष्ट साहित्यिक संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं जिनमें अधिकांशतः केवल साहित्यकार ही भाग लिया करते हैं। इक्का दुक्का जो गैर साहित्यकार वहाँ पहुँच जाते हैं उनमें से कुछ तो यूँ ही कौतूहलवश आ जाते हैं और विस्मयभरी निगाहों से सारे वाक्युद्ध को देखा करते हैं। कुछ लोग खाली समय व्यतीत करने के लिए आते हैं और कुछ देर बाद ही आँख मूँद कर ऊँघने लगते हैं. कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो किसी अन्य आयोजन के भ्रम में वहाँ पहुँच जाते हैं और जैसे ही उन्हें कार्यक्रम की असलियत पता चलती है तो ऐसे निकल भागते हैं जैसे कोई न पीने वाला गलती से मदिरालय में घुस गया हो।
ऐसा ही एक आयोजन संस्कृति विभाग की ओर से पिछले दिनों हुआ था। वह था ” आधुनिक हिंदी कथा साहित्य ” पर एक भव्य राष्ट्रीय परिसंवाद। देश के विभिन्न भागों से जाने माने लेखक व् आयोजक इसमें भाग लेने के लिए आये थे। मुझे समाचार पत्र के माधयम से इस आयोजन की खबर मिली तो एक सांयकालीन सत्र में मैं भी इन महानुभावों को देखने सुनने के लिए पहुँच गया।
सभागार बहुत ही खूबसूरती से सजा था। उस सभागार में ऐसी व्यवस्था थी कि मंच नीचे की ओर था और श्रोता के बैठने की व्यवस्था सामने की तरफ छोटी छोटी सीढ़ियों पर थी। अंदर पहुँच कर सबसे पहले मंच की ओर नज़र डाली तो वहाँ सजी दस पंद्रह कुर्सियों पर हिंदी साहित्य जगत के स्वनामधन्य कई मठाधीशों तथा महामंडलेश्वरों के साथ एक स्वयंभू जगद्गुरु भी विद्यमान थे। ह्रदय गद्गद हो गया। क्या अद्भुत साहित्य संगम था।
जब दृष्टि अंदर के माहौल की अभ्यस्त हुई तो बैठने का स्थान खोजना चाहा पर वहाँ स्थान की क्या कमी थी ? कुल जमा 12 श्रोता थे और 13 की अशुभ मैंने वहाँ पहुँच कर बना दी थी। मैं आराम से बैठ कर मंचीय अभिव्यक्तियाँ सुनने लगा। एक विद्वान वहीँ उपस्थित एक अन्य विद्वान की सद्य प्रकाशित कृति पर आलोचनात्मक आलेख पढ़ रहे थे। उनके आलेख की भाषा और पढ़ने के अंदाज़ से ही पता चल गया कि दोनों विरोधी अखाड़ों के पहलवान हैं। जिन महोदय की कृति की ऐसी की तैसी हो रही थी वे चेहरे पर एक पिटी हुई मुस्कान चिपकाए बार बार मंच की चौथी कुर्सी पर अजगर की तरह से पसरे एक सज्जन को देख रहे थे।
जब इन आलोचक जी का व्याख्यान ख़त्म हुआ तब वे सज्जन अंगड़ाई लेकर उठे और अध्यक्ष जी के सूर्य मुख के आगे ऐसे चन्द्रमा की तरह से अड़े कि वहाँ सूर्यग्रहण सी स्थिति उत्पन्न हो गयी। शायद तब उनके बोलने की बारी नहीं थी पर इस अतिक्रमण को देखते हुए ,अपने पद की गरिमा की रक्षा करने के लिए अध्यक्ष को उन्हीं का नाम पुकारना पड़ा। अब उन्होंने माइक को अपने दोनों हाथों में ऐसे कास कर पकड़ा जैसे अपने से पूर्ववर्ती वक्ता का गला पकड़ लिया हो और लगे दनादन उसके तर्कों को जुतियाने।
उन्होंने यह साबित करना शुरू कर दिया कि उनसे पहले बोलने वाले आलोचक महाशय ज़रूर दृष्टिदोष के शिकार हैं अन्यथा जिस कृति की वह निंदा कर रहे थे वह इस शताब्दी की महानतम रचना है और वे उसके रचनाकार को कम से कम ज्ञानपीठ तो दिलवा कर ही रहेंगे। अब मुझे समझ आया कि वे रचनाकार महोदय क्यों बार बार इन्हें देख रहे थे। जैसे जैसे ये बोलते जा रहे थे वैसे वैसे रचनाकार के मलिन मुख्य फर्श पर संतोष का पोंछा लगता जा रहा था। अपनी मिटटी पलीद होता देख कर पहले वाले विद्वान आलोचक पान पीकने के लिए जाने के अंदाज़ में मुँह पर हाथ रख कर बाहर खिसक लिए।
29-08-2018 07:36:45 PM: संजीव निगम: कुछ देर बाद मुझे महसूस हुआ कि मंच पर बैठे एक ख्यातिनाम लेखक शायद निरन्तर मेरी ओर देख रहे हैं। मैं थोड़ा संभल गया। मन उल्लसित हुआ कि एक इतना ख्यातिप्राप्त लेखक एक नवोदित लेखक को पहचानने की कोशिश कर रहा है। मैं याद करने लगा कि मेरी रचनाएँ फोटो समेत किन किन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं। शायद उनमें से किसी रचना ने उन्हें प्रभावित किया हो। मेरा मन अब वहाँ की उखाड़ पछाड में नहीं लग रहा था बल्कि मेरे मन में आत्म सुख की छोटी सी मकड़ी धीरे धीरे अपना सुनहला जाल बुन रही थी।
परिसंवाद समाप्त हुआ तो लोग आपस में छोटे छोटे समूह बना कर बातें करने लगे किन्तु मैं उन लेखक जी को तलाशने लगा। वे अन्य लेखकों आलोचकों के समूहों में मुझे नहीं मिले। सभागार के दरवाज़े के बाहर देखा तो वे गैलरी में अकेले खड़े सिगरेट पी रहे थे। मैं लपक कर उनके पास पहुँचा और मुस्कराते हुए हाथ जोड़े। उन्होंने औपचारिक ढंग से अपना हाथ आगे बढ़ाया। मैंने उनका हाथ थामते हुए कहा , ” जनाब , मैं भी हिंदी का एक नया नया लेखक हूँ। ” उन्होंने कहा , :” हूँ ” और मुझे अपने हाथ से एक ओर हटा कर बड़ी अदा से मुस्कराते हुए सामने की तरफ देखने लगे। मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो सामने से एक आधुनिका चली आ रही थी जोकि परिसंवाद के समय ठीक मेरे आगे बैठी हुई थी।
अब मेरे समझ में आया कि उस आयोजन के मध्य वे मेरी प्रतिभा को नहीं बल्कि उस युवती के सौंदर्य को निहार रहे थे। मेरे मन को ठेस लगनी ही थी सो लग गयी। जैसे जैसे वह करीब आती गयी लेखक जी की मुस्कान सरल रेखा से प्रारम्भ हो कर चतुर्भुज होती गयी। जब वह बिलकुल करीब आ गयी तो लेखक जी उसे कार्नर कर ही लिया , बोले , ” आप भी साहित्यिक आयोजनों में रूचि रखती हैं ? ”
वह युवती मुस्करा कर खड़ी हो गयी। उसके आराम से खड़े होने के लिए लेखक जी ने मुझे हलके से थोड़ा किनारे धकेल दिया। रूपसी ने बालों को एक ओर झटका और कहा , ” सर, साहित्य में मेरी बड़ी दिलचस्पी है। लगभग सभी लेखकों के ऑटोग्राफ मेरे पास हैं। आप भी दीजिये न !”
लेखक जी खुश होकर अपनी जेब में पेन तलाशने लगे जोकि उन्हें मैंने अपनी जेब से उपलब्ध कराया। हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने उससे पूछा , ” कौन कौन सी रचनाएँ पसंद हैं आपको ? ” ” कुछ तो आपकी ही ” कन्याराशि ने उत्तर दिया। लेखक जी ने पेन मुँह में डालते हुए आँखें थोड़ी सी तिरछी करते हुए कहा, ” यानि कि उच्च स्तरीय रचनाएँ पढ़ने का शौक रखती हैं आप। ” फिर थोड़ा मुस्काये और बोले , ” चलिए , इसी बात पर एक एक कप कॉफ़ी हो जाए। ” मैंने भी सुर में सुर मिलाया , ” हाँ , हाँ हो जाए। ” भले ही मेरी इस बात का कोई उत्तर नहीं मिला था किन्तु मैं भी इतने बड़े लेखक का साथ नहीं छोड़ना चाहता था। उन्होंने कन्या से बात करते हुए कॉफ़ी हाउस का रास्ता पकड़ा और मैंने बिना बुलावे के भी उनका अनुसरण किया।
जब हम उस सभागार के मुख्य द्वार से निकलने लगे तो वहाँ खड़े दरबान एक दूसरे को देख कर मुस्कराने लगे। हमारे गेट पार करते ही पीछे से आवाज़ आई , ” ससुरा बहुत घाघ है। जब भी आता है कोई न कोई लड़की पटा ही लेता है। ” यह व्यंग्य मुझ पर न होते हुए भी , एक बड़े साहित्यकार के अपमान से मैं तिलमिला गया। मैंने रुक कर पीछे मुड़ कर देखा। वे दोनों दरबान दूसरी दिशा में देखने लगे। वापस पलट कर देखा तो लेखक जी का हाथ कन्या के कंधे पर पहुँच चुका था और वे उसे साहित्य की कुछ बारीकियाँ समझाते हुए बेफिक्री से चले जा रहे थे।
संजीव निगम
डी – 204 , संकल्प 2 , पिम्परी पाड़ा ,
फिल्म सिटी रोड, मलाड [पूर्व] , मुंबई – 400097 .