पिघलता कोहरा

सुबह के घने कोहरे में
कुछ यादें, सर्द हवा के झोंके सी
दस्तक दे रही हैं।
कुछ कोहरे में जमी यादें
कमरे को रोशन करने लगी हैं
एक अरसे से इन आँखों में
जमा कोहरा पिघलने लगा है।
वो एक सर्द दोपहर
जब पर्वतों की तलहटी में
तुम और मैं एक किले से बाहर
आ रहे थे, अचानक
बादलों से सफ़ेद रुई सी बर्फ
झरने लगी थी
बर्फ को हाथ में थाम लेने
की चाहत में,हाथ सुन्न हो गए थे
मैंने हाथ कोट की जेब में डालने चाहे, कि तुमने मेरे हाथों को
थाम लिया, और अपने हाथों के वो दस्ताने पहना दिए
उन हाथों के दस्तानों से आज
भी ठन्डे पड़े हाथ गर्माने लगे हैं।

एक अरसे से वो जग में जमा
पानी भी पिघलने लगा है
वो एक सर्द शाम
जब तुम और मैं
झील की सीढ़ियों पर बैठे
पानी पर गहराती कोहरे की चादर को देख रहे थे
शाम और सर्द होती जा रही थी
तुम्हारे कंधे के मखमली तकिये पर टिका मेरा सर
हवा के झोंके के साथ
तुम्हारे मफलर का बार बार
मेरे चेहरे को छू जाना
तुम्हारे भूरे कोट में
मेरा सर छुपाना
और हमारे मुँह से निकलती
भाप की सरगोशियां
एक मौन, अनकहा राग
छेड़ रहीं थीं
और ये शाम यादों की किताब में दर्ज हो रही थी
वो अलमारी में टंगा कोट भी हिलने लगा है
वो खिड़की से झांकता ठूँठ
सा पेड़ भी हिलने लगा है।

एक अरसे से इन आँखों में
जमा कोहरा पिघलने लगा है….!

 

कंचन अद्वैता
पंचकूला

 

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