मर कर ही नहीं
मिलती मुक्ति
शरीर से है ही नहीं
मुक्ति का नाता
बस! मन का खेल
निर्लिप्त रह कर
देखना है सब नाटक
कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं।
निर्देशक की काबिलियत पर
कभी कोई शक नहीं
कलाकार कितनी शिद्दत से
निभाए झूठ, सच कह कर
स्वीकार्य हो!
बेशक जानते हो
पहचानते हो
है हर तरफ
झूठ का तमाशा
मगर इस तमाशे में
भागीदार नहीं बनना
बस! निहारना है
मूक रह कर
कर पाओगे जिस दिन
मात्र इतना
पा जाओगे
वही मुक्ति
जो बुद्ध को मिली
सब त्याग कर।।
दलजीत कौर
चंडीगढ़
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