उड़ रहा है रंग
बालों का
आँखों की चमक
आवाज़ की खनक
सब धूमिल हो रही हैं
स्मृति-पटल भी /
होता जा रहा है अस्पष्ट-सा
नहीं दिख रहा
उसपर भी कुछ साफ़
धुंधला होता जा रहा है संसार
हो रहा है शिथिल धीरे-धीरे
कायातरु , इसकी शाखाएं
स्फूर्ति, चंचलता, उतावलापन
सब छूट रहा है पीछे कहीं
मन मस्तिष्क पड़ गए हैं
लचर से लाचार किसी कोने में
नहीं रहा वह समय
जब पेड़ की सबसे ऊँची शाखा
पुल की रेलिंग
छत का अंतिम कोना
होते थे ठिकाने
अब किसी को भी वहां देख
कांप उठता है हृदय
साहस, जोश लगने लगे हैं पराए से
चिन्ताएं अनगिनत
अपनी कम, अपनों की अधिक
बांधती जा रही हैं
शक्तिशाली मोहपाश मे
विचित्र-सी प्रतीत हो रही है
यह नई पारी जीवन की
विवशता जमा रही है
अपना अधिकार लगातार
बहुत अलग सा है यह अहसास
यह मैं हूँ
तो वह कौन था ?
—–भूपेन्द्र जम्वाल ‘भूपी’
नगरोटा बगवां, कांगड़ा
नगरोटा बगवां, कांगड़ा
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