शिमला जिला मे लेखन के क्षेत्र मे अभूतपूर्व योगदान देने वाले लेखक है नरवीर लामा

देश की आजादी से पहले और आजादी के बाद के समय को नरवीर लामा ने बखूबी अपने लेखने मे उतारा है। आज के सेब उत्पादक क्षेत्र मे पिछ्ले दशकों मे कैसा रहन-सहन और जीवन-यापन था, इस लेखक ने अपनी भावनाओं से उसे इस प्रकार अपनी किताबों मे शब्दों से उकेरा है जो आगामी पीढ़ियों के लिए अपनी पुश्तों का एक आईना होगा । आइये 83 वर्षीय  नरवीर लामा के जीवन के कुछ उतार-चढ़ावों को जानते है ।

नरवीर लामा का  जन्म 23 जुलाई 1934 में शिमला जिला की तहसील जुब्बल के गाँव क्यारी में एक किसान परिवार में हुआ । इनके पिता वन विभाग के कर्मचारी थे तथा माता गृहणी थी ।  इनकी प्रारंभिक शिक्षा जुब्बल में ही हुई । जब  नरवीर लामा ने खुद को कुछ संभाला  उस समय देश गुलाम था  । जुब्बल के राजा ने भी जनता के शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । ऐसा कुछ इन्होने अपनी आंखों से भी देखा है और कुछ बड़े-बुजुर्गों से भी सुना है । आजादी से पहले इन्होने शायद तीन चार साल का गुलामी का समय देखा और महसूस किया है  । ऊपरी शिमला के हर इलाके में उस समय बहुत गरीबी थी ।

 

समय ऐसा था कि  थोड़ा बहुत पैसा बड़े जमीनदारों और राजा से जुड़े हुए लोगों के पास ही होता था । ये ऐसा दौर था जब कोई भी सेवा घर-दरवाजे तक आसानी से नही पहुचती थी , उसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी होती थी ।  नरवीर लामा और इनके  सहपाठी आठवीं कक्षा तक बिना किसी जूतों के नंगे पैर स्कूल जाते थे तथा खद्दर के मोटे कपड़े पहनते थे । इसी बात से अन्दाजा लगाया जा सकता है उस समय कैसा वक्त रहा होगा । और शायद हम आज के दौर मे इसका अनुमान भी न लगा पायें ।  पूरे क्षेत्र में 90% बच्चों का यही हाल था ।  गांव के लोग बड़ी मुश्किल से परिश्रम करके खेती से दो- जून की रोटी जुटा पाते थे तथा भेड़ बकरी और गाय का दूध बेचकर थोड़ा बहुत नगद पैसा हासिल करते थे ।

पहाड़ी समाज का यह आईना इन्होने अपनी आंखों से देखा है जिसमें आम आदमी जानकारी के गहन अभाव मे ही जी रहा था और इसी अज्ञानता के कारण समाज रुढ़ीवादी रिवाजों और कुरितियों मे जकड़ा हुआ था ।  इन्हीं परिस्थितियों  ने नरवीर लामा के  मनोभाव को बहुत ह्द तक प्रभावित किया । लामा के ज़हन मे  समाज की इन सब कुरीतियों से जनता को अवगत कराने का विचार बार बार मन मे दौडता रहता था । 1952 में मैट्रिक तक की शिक्षा तो उत्तीर्ण कर ली पर उसके बाद  गरीबी के कारण अभिभावक  नरवीर लामा को आगे की पढ़ाई नहीं करवा सके ।

समय ऐसा था कि समाज जात-पात, पण्डित पाखण्ड तथा देवी- देवताओं  के अन्धविश्वासों से घिरा हुआ था । उस समय खासकर ऊंची जातियों के लोगों द्वारा दलितों से अपने खेतों में नाम-मात्र पगार पर काम करवाया जाता था , उस दौर मे जाति प्रथा इतनी प्रभावित थी कि दलितों का अन्य लोग अपने घरों पर साया  तक नहीं  पड़ने देते थे । इन सब सामाजिक कुरीतियों को देखकर लामा के  मन में चोट सी लगती थी , कि हमारे समाज में इन दलित  वर्गों को  इंसान क्यों नहीं समझा जाता  । इन विषयों पर इन्होने  स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही समाज को जागरुक करने के इरादे से कविता  लेखन शुरु किया। सहपाठियों के साथ-2 समाज के लोगों को भी जागरुक करने के उद्देश्य से इन्होने इन विषयों पर गीत और कविताये लिखी ।  जिन्हे ये उस समय के वीर प्रताप पेपर में छपवाते रहते थे ।

यही वो दौर था जब नरवीर लामा ने अपनी आवाज को लोगों तक पहुचाने के लिए लेखन को अपनाया  । नरवीर लामा के अनुसार यही वो माध्यम हो सकता था जिससे वे अपनी अवाज को सामाज के उस आदमी तक पहुचा सके जहा उसकी जरुरत है ।

कुछ समय बाद अपने क्षेत्र की पंचायत में प्रधान सरपंच बनने का इन्हे मौका मिला । उस समय क्षेत्र की जनता ने इन्हे समर्थन देकर पंचायत प्रधान बनाया । इसी पद से  इनको जनता के बीच जाकर उनसे जमीनी हकीकत पर  संपर्क करने का मौका मिला और गांव में जाकर लोगों की समस्याओं को समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।

इसी दौरान नरवीर लामा की  पहली किताब  शीर्षक  पहाड़ की रानी  1980  में किताबघर गांधीनगर दिल्ली से प्रकाशित हुई ।  उसके बाद लगातार छुआछूत जात-पात व दहेज प्रथा तथा दलितों के प्रति सद्भावना लेकर आम जनता  को अपने लेखन से नरवीर लामा जागरुक करते आ रहे है । अब तक इनकी सामाजिक विषयों पर नाटक, कविता तथा उपन्यास के रूप में दर्जन से ऊपर पुस्तकें प्रकाशित हुई है ।

जिनकी सूची तथा विषय को  हिमाचल कला संस्कृति अकादमी  तथा डीसी शिमला द्वारा 2005 में प्रमाणित किया गया ।  नरवीर लामा की  एक शोधकृति पुस्तक एप्पल स्टेट  हिमाचल प्रदेश  नामक शीर्षक  से जो प्रदेश के ग्रामीण पर्यटन तथा बागवानी पर आधारित है, को पर्यटन विभाग की तरफ से पुस्तक के लंबे समय तक शोध कार्य हेतु पर्यटन निदेशक हिमाचल प्रदेश  द्वारा पुस्तके प्रकाशन तथा शोध कार्य पर खर्चों को देखते हुए लेखक को 50,000 रु  का अनुदान प्रदान किया था । इनकी  प्रकाशित सभी पुस्तकें सरकार द्वारा राजकीय पुस्तकालयों के लिए अनुमोदित है ।

नरवीर लामा के लेखन की मुख्य दिशाएं जात-पात, छुआछूत,  अन्धविश्वास और रुढ़िवादी प्रथाए रही है । लेखक का मानना है कि जातपात एक कलंक है और उसे समाप्त करने के लिए नेता और सरकार को ऊपरी स्तर से खत्म करने का फैसला लेना चाहिए । जबकि आजादी के इतने वर्षों बाद भी सरकार इसे समाज पर थौपने की ही कोशिश करती आ रही है ।

इनकी प्रकाशित कृतियां है (उपन्यास) पहाड़ की रानी, गहरी चोट, वक्त का एक दिन, आखरी मंजिल, काला बदन, नजाकत, इक्कसवीं सदी का भारत, खादी एक समाज कल्याण ( शोधकृति ) ,

नाटक :- पहली मंजिल, सोने के पत्थर , पांच बीघे जमीन, कच्चे दाने अनार के, आत्मा की आवाज, मदहोश ( शायरी संग्रह )

नरवीर लामा ने कभी भी अपनी नाम प्रसिद्धि पाने को लेखन से जुड़े किसी भी  पुरस्कार के लिए आवेदन नहीं किया । इन्हें तो अपनी क्षेत्र की सेवा, सृजन कार्य तथा अपनी घर गृहस्ती की जिम्मेदारियों से फुर्सत ही नहीं मिली । लामा तो ज्यादातर अपने क्षेत्र तथा जमीन से ही जुड़े रहे है । एसे बहुत से लोग है जो पर्दे के पीछे हैं जिन्होने अपने क्षेत्र में लोगों को जागरुक करने के लिए उत्कृष्ट कार्य किए हैं । मगर क्षेत्रीय समाजिक सेवा करने वाले व्यक्तियों को अभी तक किसी भी सरकार द्वारा उनकी सेवा भावना को गंभीरता से नहीं लिया गया है ।

नरवीर लामा ने टीम ओनैन डाट इन से बातचीत मे बताया कि लेखन के क्षेत्र मे आने को दो लोग मेरे मूल प्रेरणा स्त्रोत रहे है , एक मुशीं प्रेमचन्द जिनके साहित्य पठन से मुझे सामाजिक कुरितियों को उजागर करने की प्रेरणा मिली और दूसरा मेरी  धर्मपत्नी जो अनपढ़ रही पर किसी पढ़ीलिखी महिला से ज्यादा मेरी प्रेरणा रही । चुल्हा चौका और परिवार सभालने की सारी जिम्मेवारियो को अपने कन्धों पर उठाकर हर बार मेरी धर्म पत्नी ने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया ।

साहित्य के माध्यम से ही नरवीर लामा की लेखन मे एक पहचान बनी, जिसके फलस्वरुप इन्हे आधुनिक मीडिया  आकाशवाणी , टेलीवीजन लोकल चैनल जैसे ETV,  सिटी चैनल के माध्यम से साक्षात्कार द्वारा  भी लोगों तक अपनी आवाज को पहुचाने का मौका मिला है ।

आज के सूचना क्राति के दौर मे नरवीर लामा का मानना है कि हर परिवार मे साहित्य पढ़्ने की रुचि होना बहुत जरुरी है । और ये तब बहुत ही जरुरी है जब आज इनटेर्नेट पर जानकारी का विशाल भण्डार है । “पुस्तके हमारी सबसे सच्ची मित्र है “ जैसी कहावते आज के ही दौर मे सार्थक हो सकती है ।

नरवीर लामा मौजूदा शिक्षा प्रणाली मे बदलाव देखना चाहते है , जिसमे नैतिक शिक्षा और आध्यात्मिक शिक्षा को पहली श्रेणी से ही अनिवार्य होना चाहिए । तभी हमारे गाव और राष्ट्र का उत्थान हो सकता है । अशलीलता के रुप मे फैल रही मानसिकता को खत्म करने के लिए एक स्तर पर यौन शिक्षा का स्लेबस मे होना भी अनिवार्य हो । जिससे समाज मे हर वर्ग की सम्मानजनक स्थिति बने । मौजूदा समय मे बहुत अच्छी किताबे छ्प तो रही है पर सरकारी लाईब्रेरी तक ही सीमित हो जाती है । सरकार और बुध्दिजीवी वर्ग को इसके लिए हर पंचायत स्तर पर एक  पुस्तकालय खोलना चाहिए । जिससे किताबें उन ग्रामीण लोगों तक पहुचे जिनको इसकी सख्त जरुरत है ।

नरवीर लामा की लेखनी की कोशिश मे अकसर  सामाजिक कुरीतियों के इलावा राष्ट्र प्रेम,  विश्व शांति,  सर्व धर्म सद्भाव,  मानव मूल्य,  संस्कृति , पर्यावरण , गरीबी उन्मूलन , नारी उत्थान तथा देश की अखंडता को लेकर क्या प्रयास किये जा सकते है के बारे मे मुख्य रुप से जोर रहता है । कविता , कहानी,  लघु –कथा,  गीत , गजल के माध्यम से भी क्षेत्र की जनता से ये समय समय पर  संपर्क बनाएं रखते है ।  हिमाचल अकादमी द्वारा आयोजित  साहित्य गोष्टीयां,  कवि सम्मेलन में भी नरवीर लामा  अपना सक्रिय योगदान देते रहते है । इन्हीं सभी उपलब्धियों को देखते हुए क्षेत्र की जनता के आग्रह पर स्थानीय प्रशासन द्वारा 15 अगस्त 2016 को जुब्बल स्टेडियम  में सामाजिक उत्कृष्ट कार्य के आशय से इन्हे सम्मानित किया गया ।

उम्र के इस दौर में भी समय निकालकर ग्राम सभा की बैठक मे जाकर उपस्थिति जनसमूह को विकृतियों के प्रति नरवीर लामा संबोधित करते रहते है । खासकर  नौजवानों को क्योंकि हमारे नौजवान ही देश के भविष्य निर्माता है ।

हो सकता है कि आज के सूचना क्रातिं के दौर मे लोगो के पास किताबें पढ़ने के लिए समय नही है । पर पर सही मायने मे यदि समाज और अपनी संस्कृति को जानना है तो इससे बढ़िया कोई भी माध्यम नही हो सकता  ।

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टीम ओनैन डाट इन
Team  www.onain.in

 

 

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