विश्व पटल पर हिंदी :स्थिति एवं प्रासंगिकता
जब भी आप किसी विदेश यात्रा पर जाएँ और एयरपोर्ट से बाहर निकलते समय हम भारतीय के रूप में पहचाने जाएँ और नमस्ते, प्रणाम, क्या हाल-चाल है ? जैसे छोटे-छोटे वाक्य और शब्द सुनने को मिल जाएँ… आपका स्वागत रूस में वहां के नौजवानों से लेकर दुकानदारों तक इस तरह गा कर करें ..सर पे लाल टोपी रुसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी …या लन्दन में केन्या मूल के कारोबारी मिलें और वे सीने पर हाथ रख कर कहने लगें, “भारत तो मेरी जान है, मैं जयपुर में पढ़ा हूँ” …मारीशस की राजधानी पोर्ट लुईस के बाज़ार में सुनने को मिले- आइये, आइये,एकदम सस्ता है, बढ़िया है, तो आपको गर्व के साथ-साथ सचमुच यह भी एहसास होगा कि हिंदी सरहद पार अपना विश्वव्यापी रूप धारण कर चुकी है और संवाद की सशक्त भाषा के रूप में उभरी है।
भारत से दुनिया के किसी कोने में चले जाएँ, भारतियों को मातृभाषा हिंदी जोड़े रखती है। हिंदी के सामर्थ्य के बारे में अब कोई शक की गुंजाईश नहीं रह गई है। वर्तमान परिदृश्य में हिंदी विश्व की सर्वाधिक समर्थ भाषाओँ में समादृत है क्योंकि हिंदी जैसी शब्द सम्पदा, दुनिया की किसी भी आधुनिक भाषा के पास नहीं है । हिंदी में 2 लाख 50 हजार से भी अधिक शब्द हैं। नित नये अविष्कार के दौर में हिंदी के पास शब्द निर्माण की व अन्य भाषाओँ के शब्द संयोजन की असीम क्षमता है। कम्प्यूटर तकनीक ने युवा वर्ग को हिंदी की स्वीकार्यता के लिए ऊँचाई प्रदान कर इसे विश्वव्यापी बनाया है।
आज हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल कर विश्व जगत को अचंभित कर रही है। विश्व में आधा अरब लोग हिंदी बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। सन 1952 में हिंदी विश्व में पांचवें स्थान पर थी।1980 के दशक में वह चीनी और अंग्रेजी के बाद तीसरे स्थान पर आ गई और अब चीनी भाषा के बाद हिंदी दूसरे स्थान पर स्थापित हो गई है। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा, पर्यटन व बाज़ार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ हिंदी ने अपने पाँव न पसारे हों। आप न्यूयार्क से लन्दन और न्यूजीलैंड से नाइज़ीरिया, सिंगापुर से सिडनी, फिजी से फिनलैंड, म्यांमार से मॉरिशस कहीं भी चले जाइये बाज़ारों, मॉल, युनिवर्सिटी कैम्पस, एफ. एम. रेडियो और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर लोग हिंदी में बातचीत करते हुए मिल जायेंगे। एक तरह से हम कह सकते हैं कि हिंदी ने अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया है।
आओ उन कारणों पर भी प्रकाश डालें, जिनके कारण हिंदी ने संवाद का और व्यापारिक चरित्र पाया है – दुनिया के विभिन्न हिस्सों में करीब डेढ़ करोड़ से ज्यादा प्रवासी भारतीय बसे हैं। ये वो लोग हैं जो अपने साथ हिंदी भी ले गये हैं। भले ही तमिलनाडु का कोई आदमी भारत में तमिल में ही बतियाता हो, पर देश के बाहर वह किसी अन्य भारतीय के साथ हिंदी में ही बोलता है। भारतवंशियों की ही नहीं, पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों, नेपालियों की भी सम्पर्क भाषा हिंदी ही है। मिस्त्र, मलेशिया, थाईलैंड, खाड़ी और अफ़्रीकी देशों में टूरिस्ट गाइड से लेकर होटल स्टाफ तक टूटी-फूटी हिंदी में ही सही, भारतीयों से संवाद स्थापित करने की कौशिश करते हैं । हिंदी के वैश्विक होने का दूसरा प्रमुख कारण है बाज़ार। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में देश को बाज़ार और नागरिक को ग्राहक बनाने वाले जानते हैं कि हिंदी अपने बलबूते पर आगे बढ़ रही है और बाज़ार ने हिंदी की स्वीकार्यता को नई ऊँचाई प्रदान की है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि जो भाषा रोजगार और संवादपरक नहीं बन पाती उसका अस्तित्व ही खत्म हो जाता है। भारत की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होने के कारण भारतीय दुनिया भर में घूम रहे हैं और इन धनी हिदुस्तानियों से व्यापारिक सम्बन्ध बनाने व प्रभावित करने के लिए तमाम देशों के पर्यटन उद्योग से जुड़े लोग हिंदी सीख रहे हैं। अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में तगड़ा निवेश कर चुकी हैं। बाज़ार का फीडबैक लेने के लिए उन्हें हिंदी जानने वालों की जरूरत पड़ती है। इन कम्पनियों ने कई विभागों जैसे मार्किटिंग, प्रोक्योरमेंट और कस्टमर रिलेशन्स में काम करने वालों के लिए हिंदी का ज्ञान अनिवार्य बना दिया है और इसके लिए बकायदा कक्षायें भी लगाई जाती हैं। कॉर्पोरेट घरानों के बोर्डरूम में हर देसी-विदेशी खूब ठसक के साथ हिंदी बोलते हैं। शुक्रिया, नमस्ते, अच्छा, ठीक है, चलो जैसे शब्द इनके बीच प्रचलित हैं। मारिशस के बाज़ार में फ्रेंच और ब्रिटिश लोगों के बराबर भारतीय भी बड़ी संख्या में आते हैं। जब हिन्दी भाषी खरीददारों में शामिल हों जाएँ तो बाज़ार को हिंदी सीखनी ही पड़ेगी। हिंदी का विश्व भाषा के रूप में स्थापित होने का एक बड़ा कारण है भारत की पुरातन संस्कृति, इतिहास और धर्म, विशेष रूप से बोद्ध धर्म से सम्बन्ध भी शेष विश्व को हिंदी से जोड़ते हैं। जिन-जिन देशों में भारतवंशीय बसे, वहां हिंदी को जीवित रखने में आर्यसमाज, सनातन धर्म, ईसाई, पादरी तथा अन्य धार्मिक संगठनों एवं प्रसार माध्यमों का भी विशेष योगदान रहा है।
यह हमारे लिए हर्ष और गर्व का विषय है कि आज विश्व के पचास से भी अधिक देशों में 167 विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षा की व्यवस्था है। टोक्यो विश्वविद्यालय में 1908 में ही हिंदी के उच्च अध्धयन का श्रीगणेश हो गया था। अब तो जापानी मूल के लोग ही वहां हिंदी पढ़ा रहे हैं। अमेरिका के येल, न्यूयार्क, विस्कांसिन विश्विद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है, वहां भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक ही हिंदी पढ़ा रहे हैं। जर्मनी, पूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देश जैसे पौलेंड, हंगरी, बल्गारिया, चेकगणराज्य आदि में भी हिंदी अध्ययन की लम्बी परम्परा रही है। विश्व में कुछ प्रमुख विदेशी हस्तियों के नाम भी यहाँ उद्धृत करना चाहूंगी जिन्होंने हिंदी की अलख जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है वो हैं – चीन के च्यांग चिंगख्वेड जो पेइचिंग विश्वविद्यालय के सेंटर फार इंडियन स्टडीज के अध्यक्ष हैं, इन्हें न्यूयार्क में आयोजित आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हिन्दी सेवा के लिए सम्मानित किया गया। जापान के आकियोहागा, जापानी और हिंदी भाषा के विद्वान हैं, वे हिंदी में एम.ए. करने के बाद टोक्यो में हिंदी पढ़ाने लगे। वे महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विभाग, वर्धा में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे हैं। ब्रिटेन के रोनाल्ड स्टुटर्मेवग्रेगर ने हिंदी पढ़ाई करने के बाद 1972 में हिंदी व्याकरण पर ‘एन आउट लाईन आफ हिंदी ग्रामर’ नाम से महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। रूस के पीटर वरानिकोव ने रामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया व बालीवुड पर पत्रिका भी निकाली। हिंदी साहित्य में भी अब हिंदी विश्वकोश का रूप ले चुकी है।
हिंदी को विदेशों में पुष्पित व पल्लवित करने में फिल्मों का प्रमुख योगदान रहा है। फिल्म वालों की हिंदी कैसी भी हो, सिनेप्रेमियों के सिर चढ़ कर बोलती है। रूस, खाड़ी व अफ़्रीकी देशों से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया तक भारतीय फिल्मों के लिए गहरा आकर्षण देखा जा सकता है। भारतीय व्यंजनों की भी हिंदी के प्रसार में महती भूमिका है। नान-रोटी, करी-चिकन से लेकर मसाला डोसा तक अंतर्राष्ट्रीय व्यंजन बन चुके हैं। विदेश में भारतीय रेस्तरां में 75 फीसदी विदेशी मूल के लोग बैठे देखे जा सकते हैं।
उपरोक्त तथ्य बताते हैं कि हिंदी में प्रचार-प्रसार को लेकर अब शौक जताने और बेवजह हल्ला-गुल्ला करने की जरूरत नहीं। उसने अपने सभी प्रतिद्वन्दियों को पीछे छोड़ दिया है, परन्तु वैश्विक स्तर पर इसे नम्बर वन पर स्थापित करने और स्थिरता प्रदान करने के लिए विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है। इसके लिए साहित्य सृजन में विज्ञान सम्बन्धी व धर्म निरपेक्ष साहित्य की कमी है। दूसरे विदेशी छात्रों में पठनीयता बढ़ाने के लिए मानक लिपि का होना अत्यंत आवश्यक है। तीसरे हिंदी-जापानी, जापानी-हिंदी, हिंदी-चीनी, चीनी-हिंदी, हिंदी-रूसी, रूसी-हिंदी, हिंदी-फ्रेंच, फ्रेंच-हिंदी आदि शब्दकोशों के निर्माण के साथ-साथ समुचित परीक्षाओं की व्यवस्था करनी होगी। भारत सरकार ने वर्धा में महात्मा गाँधी हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की है परन्तु इसका प्रारूप, पाठ्यक्रम अभी निर्माण प्रक्रिया में है। हिंदी के वर्चस्व के लिए हिंदी शोध केन्द्रों एवं पुस्तकालयों की स्थापना व केन्द्रीय परिषद की स्थापना होनी चाहिए, जिसकी शाखाएं प्रत्येक देश और राज्यों में हो। इसके अतिरिक्त प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया व कम्प्युटर बेबसाईटों पर हिंदी प्रशिक्षण देने की व्यवस्था करना और विदेश में रचे साहित्य को भारत के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान देना व प्रकाशन में मदद करना, चाहे वो भारतवंशी द्वारा लिखा हो या भारत में आकर बसे विदेशी हों या उन देशों के मूल निवासी हों। मारिशस के अभिमन्यु अनंत का ‘शब्द भंग’ उपन्यास दिल्ली के विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में रखा हुआ है।
उपरोक्त के अतिरिक्त जो सबसे जरूरी है, वह यह है कि स्वदेशी की भावना को मजबूत करना। अपनी सोच में अन्य भारतीय भाषाओँ के विकास के साथ- मातृभाषा, राष्ट्र भाषा, अंतर्राष्ट्रीय भाषा हिंदी को मंच प्रदान करना होगा। अगर भारत के 130 करोड़ लोग अपनी रचनात्मकता को हिंदी में वाणी देने में समर्थ हो जाएँ तो हम पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम रख सकते हैं।
अंत में कहना चाहूंगी कि जिस समाज में अपनी भाषा का सम्मान नहीं होता, वह समाज धीरे-धीरे अपनी पहचान खो देता है। हमारी पहचान हमारी हिंदी भाषा से है और उसे पुष्पित व पल्लवित करना हम सबका धर्म भी है। हिंदी भाषा आज विश्व में अपना परचम लहरा रही है। इसके उतरोत्तर विकास के लिए अपने घर यानी भारत में ही बाधाएँ निर्मित न होने दें। तो आइये अपनी भाषा हिंदी के ध्वजवाहक स्वयं बने। जयहिन्द –जयहिंदी।
डा 0 शील कौशिक 17, Sec-20, Sirsa-125055